सोशल होने की दौड़ में..
मेरी एक कविता गुलजार जी की कविता से प्रेरित होके.. सोशल होने की दौड़ में, अपनों से मिलना ही रह गया...। हम कर पाए पोस्ट रोज फेसबुक पर मगर दिल तनहा ही रह गया ! बचपन में जहां चाहा किसीसे भी दोस्ती करते थे.. आज फ्रेंड रिक़्वेस्ट बिना भेजे किसीसे दोस्ती करना मुश्किल सा हो गया .. पर अब दिल को दोस्ती चाहिए और दिमाग को दुनियादारी! हम भी अपनों से मिलते थे बिना अपॉइंटमेन्ट लेके शेअर करते थे दिल की बात बिना किसी परवाह से.. देखा है आज खुद को अकेला भरी हुई फ्रेंड लिस्ट में! चलो अपनों से मिलते है बिना वजह ढूंढे.. कभी तुम मेरे घर आके! कभी मैं तुम्हारे घर आके! - संतोष पवार